शनिवार, 9 अप्रैल 2011

पेज-थ्री भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन उर्फ गंवाना मौका दूसरा जेपी बनने का

फुट नोट - अन्ना हजारे एवं साथियों के आंदोलन ने कई सालों से मेरे भीतर सोए पड़े एक्टिविस्ट को कुछ देर के लिए निश्चित रूप से जगा दिया। इस भाव को जान-बूझ कर कई सालों से मैं दबाता चला आ रहा था क्योंकि इससे उपजी उत्तेजना अगले कई दिनों तक मुझे असामान्य बनाए रखती है। लेकिन मेरे भीतर का एक्टिविस्ट फिर जग गया है .. चिर-विद्रोही मैं, थोड़े दिनों के लिए ही सही, फिर से सामने हूं। आप मेरी बातों का समर्थन करें या विरोध, वो आपकी भावना है और मैं उसका सम्मान करता हूं/करूंगा।


जी हां, अन्ना हजारे के आंदोलन के साथ ऐसा ही हुआ, ऐसा ही होने जा रहा है।

लोगों ने भरपूर समर्थन दिया इस आंदोलन को लेकिन ये तो बस इतनी सी बात को लेकर था कि आंदोलनकारियों द्वारा दिए गए जन लोकपाल बिल को सरकार मंजूरी दे। सरकार ने मंजूरी तो नहीं दी, बस एक कमिटी बना दी और आंदोलनकारियों के नेता वर्ग को उसका सदस्य बना दिया।

अब फिर से ये सारी बातें नौकरशाही के अंदाज में चलेंगी, मीटिंग पर मीटिंग, मीटिंग पर मीटिंग (सन्नी देओल के तारीख पर तारीख के ही अंदाज में) और नतीजा निकलेगा वही - ढ़ाक के तीन पात। नौकरशाही को सब्र रखना आता है, उसे ये पता है कि इस तरह के आंदोलनों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका है - धैर्य। धीरज धरो, मामले को इतना लंबा खींच दो कि ये कभी खत्म न होने पावे (हरि अनंत, हरिकथा अनंता की तरह)। अब फिर से ये सारी बातें वर्षों तक सत्ता के गलियारों में मीटिंग्स के जरिए चलेंगी और चलती रहेंगी। नतीजा कुछ नहीं निकलने वाला।

मैं दुआ करूंगा कि मेरी बात झूठ निकले लेकिन मुझे उसके आसार कम ही नजर आते हैं। सत्ता तंत्र को पिछले कुछ सालों से काफी करीब से देखा और समझा है मैंने और मेरी समझ यही कहती है कि मुद्दा गया अब डस्टबिन में। ध्यान दीजिएगा कि जिस समिति को बनाने की घोषणा हुई है, उसको अपनी बातें और विचार-विमर्श खत्म करने के लिए कोई समय सीमा नहीं दी गई है।

मैं इसीलिए निराश हूं। मैंने इस आंदोलन का समर्थन अपनी सारे नकारात्मक धारणाओं के बावजूद किया था, क्योंकि इसके जरिए बदलाव की एक नई आशा की तलाश कर रहा था मैं। समय साक्षी है और रहेगा कि मेरी शंकाएं सत्य थीं और आगे भी रहेंगी।

निराश हूं क्योंकि मुझे लगा था कि बरसों बाद एक ऐसा मौका आया है जब भ्रष्टाचार या हमारी-आपकी रोज की कठिनाईयों पर सरकार को हिलाया जा सकता है। अन्ना हजारे साहब के आंदोलन को लगातार बढ़ते जा रहे जन समर्थन ने मेरी इस धारणा को पुष्ट ही किया था। चार दिनों से लगातार मैं इस बात का साक्षात्कार कर रहा था। कल शाम में तो विरोध के एक नए अंदाज को देख कर मैं आह्लादित हो उठा था। विरोध का नया अंदाज था लोगों को थाली-चम्मच बजाते हुए मार्च करना, मानों कह रहे हों कि मेरे घर का सारा राशन तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया, अब थाली-चम्मच बजाने के सिवाय कोई और रास्ता ही नहीं बचा।

लेकिन आंदोलन तो बस एक मुद्दे को लेकर था कि जन-लोकपाल बिल को मंजूर किया जाय। सरकार ने इसे मंजूर नहीं किया, बस एक समिति बना दी और आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने आंदोलन समाप्ति की घोषणा कर दी। मानों इस आंदोलन के जरिए अन्ना हजारे एवं साथियों ने अपने को सत्ता तंत्र के सामने विज्ञापित किया कि मैं खरीदे जाने के लिए तैयार हूं, बस मेरे सामने हड्डी का एक टुकड़ा फेंक दो।

मुझे ऐसा ही होता दिख रहा है और इसका मुझे अफसोस है। ये बात अलग है कि अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी कह रही हैं कि ऐसा नहीं है और अगर ऐसा होता दिखा, तो फिर से आंदोलन का रास्ता अख्तियार करेंगे।

वाह, साहब, वाह। अरे एक बार भरोसा टूटने के बाद कोई आपका साथ देने आएगा? लोगों को आपने इतना बेवकूफ समझा है क्या आपने। लोगों या जनता का समर्थन आपको इसलिए मिला था कि उसे लगा था कि बरसों बाद अपनी पीड़ा को सही मंच पर अभिव्यक्त करने मौका मिला है। जनता इसीलिए आपसे जुड़ी थी और लगातार जुड़ रही थी। ये थाली-चम्मच मार्च अभिव्यक्ति की इसी नई भाषा को लेकर आया था और आपने उसे यूं ही जाने दिया।

होना तो ये चाहिए था कि आम जनता से मिले और लगातार मिल रहे समर्थन को भ्रष्टाचार और इस तरह के दूसरे मुद्दों के खिलाफ लगातार और दीर्घ समय तक चलने वाली लड़ाई के आधार के रूप में इस्तेमाल किया जाता। लेकिन ऐसा करना शायद आंदोलन के कर्ता-धर्ता चाहते ही नहीं थे। उन्हें तो हड्डी के उस टुकड़े से मतलब था जिसके फेंके जाने का वो इंतजार कर रहे थे। और इसीलिए ये आंदोलन दिशाहीन था और शायद इसीलिए ये आंदोलन हमारा 'ट्यूनीशिया मूवमेंट ऑफ विक्टरी' नहीं बन पाया या पाएगा। अपनी रोटी सेंक कर आंदोलन के कर्ता-धर्ता इससे अलग हो गए, भले ही इसके लिए उन्हें जनता को बरगलाना पड़ा हो।

अगर ये आंदोलन सही दिशा में जा रहा होता तो अन्ना हजारे को अनशन करने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर की जरूरत नहीं पड़ती, अहमदनगर में बैठे-बैठे वो सत्ता तंत्र को हिला सकते थे (जैसे कि पटना में होते हुए जेपी ने इंदिरा सरकार को हिलाया था)। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आंदोलन तो हड्डी पाने के लिए था, वो मिल गया। अगर ऐसा नहीं होता तो अन्ना हजारे साहेब के आंदोलन के साथ-साथ देश के हर हिस्से में इस तरह के छोट-छोटे आंदोलन हो सकते थे और क्रमश: वो एक बड़े और निर्णायक आंदोलन की नींव रख सकते थे।

लेकिन ये तो पेज-थ्री आंदोलन था भ्रष्टाचार के खिलाफ, सत्ता के गलियारों में आकर विरोध जताना, मीडिया की चकाचौंध में अपनी बात रखना और हड्डी के टुकड़े को पाते ही इसके समापन की घोषणा कर देना।

ऐसा नहीं है कि मैं नहीं चाहता था या हूं कि अन्ना साहेब का अनशन खत्म हो। अनशन खत्म जरूर होना चाहिए, लेकिन आपको जिस प्रकार से जनता ने उनको समर्थन दिया, उसका सम्मान करते हुए उन्हें आंदोलन को एक दीर्घकालीन आंदोलन में बदल देना चाहिए था और ये आंदोलन तब तक चलना चाहिए था जबतक कि उसकी स्वाभाविक परिणति न हो जाए यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ जीत न मिल जाए। निश्चित तौर पर इस लड़ाई की स्वाभाविक परिणति एक समिति का गठन होना भर नहीं है।

सत्ता तंत्र इस बात को बखूबी समझता था और इसीलिए तो लड़ाई जिनके खिलाफ लड़ी जा रही थी, वो ही लोग इसके समर्थन में आ गए। तभी तो केंद्र सरकार का एक मंत्री इसके समर्थन में इस्तीफे की घोषणा करता है, और तभी तो पूरा कॉरपोरेट जगत कुंभकर्णी नींद से जागते हुए कहता है कि भ्रष्टाचार से हम भी त्रस्त हैं और आपकी लड़ाई को हम अपना समर्थन देते हैं।

होना ये चाहिए था कि अन्ना हजारे देश की जनता का आह्वान करते कि आप सब अपनी-अपनी जगह पर अपने-अपने तरीके से इस लड़ाई को आगे बढ़ाएं, छोटे-छोटे समूहों और गुटों में। थकें नहीं, डटे रहें, हम सब आपके साथ हैं और भरोसा दिलाते हैं कि हम भी पीछे नहीं हटेंगे। जन लोकपाल तो एक बहाना है, जब तक मूल मुद्दे का हल नहीं होगा तब तक हम पीछे नहीं हटेंगे। विश्वास कीजिए, अगर अन्ना हजारे इस तरह का आह्वान करते तो इस देश की जनता सड़कों पर आ जाती। लोग मानसिक रूप से इसके लिए तैयार हो ही रहे थे कि आंदोलन के समाप्ति की घोषणा कर दी गयी। इसलिए हमारे देश में वो 'ट्यूनीशिया मूमेंट ऑफ विक्टरी' नहीं आ पाया।

लेकिन फिर भी मैं मानता हूं कि जनता बेवकूफ नहीं होती। उसे नए-नए तरीकों से आप ठग सकते हैं लेकिन एक ही तरीके से दूसरी बार नहीं ठग सकते। न्याय-अन्याय की बात सबसे ज्यादा आम जनता ही समझती है क्योंकि उससे जुड़े हुए दुख-दर्दों को सबसे ज्यादा वही झेलती है। ये अलग बात है कि जनता राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों की तरह मंच बना कर अपनी बात नहीं रखती लेकिन जब भी उसे भरोसा करने लायक एक मंच मिलता है, वो अपनी बात निर्णायक रूप से रख देती है।

नहीं तो क्या मौजूदा सत्ता तंत्र को अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशांत भूषण जैसे लोगों का डर था कि चार दिनों में ही समझौता करने को ये लोग तैयार हो गए। नहीं। ये उसी आम जनता का डर था, जिससे सत्ता तंत्र को झुकना पड़ा। सत्ता तंत्र सबसे ज्यादा आम जनता से ही डरता है और कोई भी शासन तंत्र आम जनता की आवाज को उठने नहीं देता, नहीं देना चाहता है।

आप बिठा दीजिए आडवाणीजी, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर या ईमानदार कहलाने वाले खुद प्रधानमंत्री महोदय को आमरण अनशन पर। मुझे 200 प्रतिशत विश्वास है कि हम लोग, आम जनता, उनके अनशन का इस आंदोलन की तरह समर्थन नहीं करेगी। वजह इतनी है कि जनता अपने प्रति हो रहे न्याय-अन्याय की बात को सबसे अच्छे से जानती है और वो ये भी जानती है कि उसके प्रतिरोध को आवाज देने के लिए कौन सा मंच कब उभर रहा है और कौन उसकी बात को सबसे अच्छी तरह से रखेगा।

इसलिए मैं अपने कुछ मित्रों की तरह इस देश के भविष्य को अंधकारमय नहीं मानता हूं। मुझे देश का भविष्य अच्छा दिखता है, खास कर तब जब इस तरह के आंदोलन को जनता का समर्थन मिले। ठीक है कि जनता के समर्थन को एक व्यापक रूप अन्ना हजारे नहीं दे पाए, ये उनकी कमजोरी है और पहले से रही है। लेकिन फिर भी जनता ने अगर उनको अपनी सहानुभूति भी दी, और वो भी इतने बड़े पैमाने पर तो ये मुझे आशवस्त करता है कि देश का भविष्य अंधकारमय नहीं है। लेकिन, जैसा कि मैं कह रहा हूं कि ये आंदोलन दिशाहीन था, एक ही मुद्दे पर केंद्रित था और इसलिए मेरा इससे विरोध था और है। लेकिन मैं इसके समर्थन में भी था क्योंकि मुझे लगा था कि शायद जयप्रकाश आंदोलन के बाद शायद ये पहला ऐसा आंदोलन था, जिससे जनता अपने मन से जुड़ी।

जयप्रकाश नारायण से कई तरह का साम्य रखते हुए भी अन्ना हजारे ने दूसरा जेपी बनने का मौका खो दिया। यही उनमें और जयप्रकाश में अंतर है, था और रहेगा।

बहस इस बात पर भी की जा सकती है कि जेपी आंदोलन से ही देश को क्या मिला। सही बात है, हमें कुछ नहीं मिला और जनता उस समय भी ठगी गई थी। लेकिन इस तरह से आंदोलन के शुरूआत में ही नहीं। वो तो जेपी आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने बाद में जनता को ठगा (इस बार की तरह ही सत्ता तंत्र से फेंके गए हड्डी को लपक कर और बाद में वे सारे लोग शासक वर्ग का ही हिस्सा हो कर रह गए)।

इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि इस बार भी वैसा नहीं होगा। लेकिन एक आशा थी कि शायद अतीत से सबक लेकर हम अपने वर्तमान और भविष्य को वैसा बनने से रोक पाएं। लेकिन इस बार के आंदोलन को तो विकसित होने देने से पहले खुद आंदोलनकर्ताओं ने ही कुचल दिया, तो फिर रोइए ज़ार-ज़ार क्यों, कीजिए हाय-हाय क्यों?

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

अन्ना हजारे का समर्थन क्यों जरूरी है?

मैं कोई क्रांतिकारी नहीं हूं, क्रांतिद्रष्टा कवि नहीं हूं, टाटा-बिड़ला-अंबानी के घर पैदा नहीं हुआ। इस देश का एक अदना सा नागरिक हूं और धर्म, जाति, राजनीति - ये सब मेरे लिए निजी आस्था-अनास्था का विषय है। मैं इन सब पर बात भी नहीं करना चाहता हूं। फिर भी, मुझे लगता है कि मुझे अन्ना हजारे की मुहिम का समर्थन करना चाहिए।


क्यों?

ये एक ऐसा सवाल है जिससे मैं जूझ रहा हूं, उत्तर नहीं है मेरे पास। बहुत ऊहापोह है मन में। फिर भी लगता है कि मुझे समर्थन करना चाहिए। मुझे पता है कि अन्ना साहेब ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक जन लोकपाल विधेयक को सरकारी स्वीकृति दिलाने के लिए आमरण अनशन शुरू किया है और इस बात को बीते दो दिन हो चुके हैं। मुझे ये भी मालूम है कि सरकारी तंत्र, राजनीतिक तंत्र इससे बौखलाया हुआ है। मुझे ये भी मालूम है कि मीडिया को अगले कुछ दिनों के लिए बढ़िया मसाला मिल गया है और चैनलों से लेकर अखबारों तक, अखबारों से लेकर इंटरनेट जैसे न्यू मीडिया माध्यमों तक ये तमाशा अगले कुछ दिनों तक चलता रहेगा।


लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि मुझे इस मुहिम का समर्थन करना चाहिए। न केवल इस मुहिम का, बल्कि अन्याय और अत्याचार के खिलाफ चलने वाले हर मुहिम का। चाहे वो किसी भी रंग-रूप में सामने आए पर अगर मुझे लग
ता है तो लगता है। मैं करूंगा, जरूर समर्थन करूंगा, कर रहा हूं, करता रहूंगा।

अन्ना हजारे साहब भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं, हो सकता है कि उनका भी अपना कोई एजेंडा हो और उसके तहत वो काम कर रहे हों (नहीं तो इतने दिनों बाद दिल्ली में अनशन करने की उन्हें एकाएक क्यों सूझी?)। अपने कुछ मित्रों की दलील दूं तो इस आंदोलन से अन्ना क्या उखाड़ लेंगे? भ्रष्टाचार तो यूं ही बना रहेगा, भले ही प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति उसके दायरे में आ जाएं। बात सही है। फिर भी मैं समर्थन करता हूं इस मुहिम का।

क्यों? इसलिए कि इसमें मुझे एक शुरूआत दिखती है .. शुरूआत दिखती है देश की समस्याओं से लड़ने के प्रति। हम सब इतने जड़ हो गए हैं कि हमारा दायरा अपने-आप तक सीमित होता चला गया है, मैं..मेरी पत्नी..बच्चे..परिवारजन..मित्र वर्ग..दफ्तर। हमारी दुनिया यहीं तक सीमित हो गयी है .. इससे आगे हम सोच ही नहीं पाते।

हम देख रहे हैं कि हमारे सामने कुछ गलत हो रहा है और हम उसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते। हम प्रतीक्षा में बैठे हैं कि कोई महापुरूष आएंगे और हमारी सारी व्यक्तिगत, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याओं का समाधान कर देंगे। शायद तभी इस देश में महापुरूषों की संख्या कुछ ज्यादा ही हैं और शायद इसीलिए भगवानों ने भी कई अवतार लिए। व्यक्तिपूजा की परंपरा वाले इस देश में अभी भी यही तो चल रहा है, भले ही उसका स्वरूप कुछ अलग हो गया हो।

लेकिन मैं केवल शुरूआत तक रूकना नहीं चाहता। मेरी आंकाक्षाएं इससे कई ज्यादा गुनी बड़ी हैं। मैं चाहता हूं कि भ्रष्टाचार के नाम पर शुरू हुई ये मुहिम और व्यापक रूप ले, इतना व्यापक बने कि ये ब्लैक होल बन जाए और समस्याएं इस ब्लैक होल में विलीन हो जाएं। समस्याएं तो यूं ही सुरसा की तरह अपना मुंह फाड़े खड़ी रहेंगी, लेकिन उन्हें सुलझाने के बजाय हम उनसे कतरा के निकल जाते हैं। मैं उम्मीद लगाए बैठा हूं कि ये शुरूआत एक नव जन-जागरण के रूप में बदले और इसी नव जन-जागरण की जरूरत इस वक्त हमें सबसे ज्यादा है। मैं चाहता हूं कि ये शुरूआत एक नए जन-आंदोलन का रूप ले, पुरानी सारी मान्यताओं, पुरानी सारी परंपराओं को ध्वस्त कर दे। मैं चाहता हूं कि ये एक नई भाषा का सृजन करे, नए समाज की स्थापना करे, नए युग का मार्ग प्रशस्त करे।

लेकिन मैं निराश भी हूं। मेरे अनुभव कहते हैं कि ये मुहिम भले ही सफल हो जाए पर इससे फायदा नहीं होने वाला है। व्यर्थ की आशा रखने से कोई फायदा नहीं होने वाला। मैं दो दिनों से जंतर-मंतर जा रहा हूं, उस नव की तलाश में जिसकी बात मैं कर रहा हूं। मैं दो दिनों से उस नव की एक किरण वहां जाकर ढूंढ़ता रहा हूं, निराश और क्षुब्ध हो कर लौटता रहा हूं।

जंतर-मंतर जाकर लगता है कि ये बस एक भीड़ है, कि यहां कुछ लोग अपने एजेंडे के साथ मौजूद हैं और उसे पूरा करवाने के लिए उन्होंने ये छद्म भेष धारण कर रखा है। मुझे आशा की कोई एक किरण अबतक नहीं दिखी। जंतर-मंतर जाता हूं तो लगता है कि जैसे किसी मेले में चला आया हूं जहां लोग उत्सव मना रहे हैं।

नहीं तो क्या कारण है कि अन्ना हजारे जैसा शख्स, जिसने अपना जीवन लोगों का भला करने में बिता दिया हो, उसे ये आंदोलन करने के लिए दिल्ली आना पड़ता। अन्ना अहमदनगर में होते हुए भी ये आंदोलन कर सकते थे। लेकिन नहीं, तब शायद उन्हें वो प्रसिद्धि, वो विज्ञापन नहीं मिलता जो सत्ता तंत्र के करीब आकर मिल रहा है। दिल्ली में आंदोलन करने का मतलब है कि आप सत्ता तंत्र से जो चाहते हैं, उसको विज्ञापित कर रहे हैं और लोगों को भुलावे में रख कर अपना हित साध रहे हैं।

दिल्ली में सत्ता तंत्र है, मीडिया की चकाचौंध है, खा-खा कर उबे हुए लोगों की फौज है। इन्हें ही तो ये मैसेज दिया जा रहा है कि चाहे जितना खाओ पर नाम के लिए ही सही पर उसे एक कानून के दायरे में लाओ। नहीं तो क्या कारण है कि इस आंदोलन के साथ पूरे देश की जनता आ के खड़ी नहीं हुई। नहीं तो क्या कारण है कि मुहिम के समर्थकों से ज्यादा जंतर-मंतर पर मीडिया और पेज-थ्री-एनजीओ वालों की भीड़ है।

होना तो ये चाहिए था कि अगर अन्ना हजारे साहब आमरण अनशन पर बैठ रहे हैं, तो देश के हर कोने में इस तरह के मुहिम की शुरूआत की जाती। छोटी-छोटी शुरूआत, पांच लोगों से, दस लोगों से। हर राज्य की राजधानी में, हर शहर में, हर कस्बे में छोटे-छोटे जन-आंदोलनों से इसकी शुरूआत की जाती और एक से भले दो, दो से भले चार की तर्ज पर लोगों को जोड़ते हुए इसे एक ऐसा रूप दिया जाता कि अहमदनगर में बैठे अन्ना हजारे से ही सत्ता तंत्र डर जाता।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ, न ही ऐसा होता हुआ दिख रहा है। तभी तो अन्ना साहेब को दिल्ली आना पड़ा। शायद आंदोलन की कमजोर जड़ के कारण ही इस मुहिम के समर्थन में पूरा महाराष्ट्र भी खड़ा हुआ नजर नहीं आता (अन्ना साहेब जहां के रहने वाले हैं)।

होना ये चाहिए था कि इसे एक विशाल जन-आंदोलन की भूमिका के रूप में प्रस्तुत किया जाता और विभिन्न मुद्दों को एक मंच पर लाने की एक ईमानदार पहल की जाती। लेकिन ऐसा होता नहीं दिख रहा है, ना ही किसी के मन में ऐसी कोई भावना नजर आ रही है।

ये आंदोलन तो फिलहाल पेज-थ्री-एनजीओज की जकड़ में लगता है, बड़े-बड़े लोग आते हैं, भाषण देते हैं, क्रांति के गीत गाते हैं और चले जाते हैं। मुझे तो ऐसे भी लोग मिले जंतर-मतंर पर पिछले दो दिनों में, जिनके मुंह से दिन में भी शराब की गंध आ रही थी। और ऐसे लोगों की संख्या तो बहुत ज्यादा थी जो मंच के ठीक सामने की दुकानों से पानी खरीद-खरीद कर पी रहे थे और उन्हें वो एक रूपये में एक ग्लास पानी बेचने वाला नजर नहीं आ रहा था। लोग गर्मी को दूर करने के लिए कोक-पेप्सी पी रहे थे। मैं उनकी बात नहीं कर रहा जो मेरी तरह महज तमाशबीन थे, मैं उनकी बात कर रहा हूं जो इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, इस आंदोलन के बैच लगाए घूम रहे हैं या फिर इस आंदोलन से सहानुभूति रखने का दावा कर रहे हैं। इस आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता पोज बना-बना कर टीवी चैनलों को इंटरव्यू दे रहे थे। ऐसे में, एक नई शुरूआत भला खाक होगी।

मैंने कुछ मित्रों को अपने विचारों से अवगत कराने की कोशिश की तो उन्होंने इसे हंस कर टाल देना बेहतर समझा। इस आंदोलन के बारे में मेरी समझ तो यही कहती है कि ये जमीन से जुड़ने के बजाय मीडिया और पेज-थ्री-एनजीओज से ज्यादा जुड़ा हुआ है और इसके जरिए ज्यादातर लोग अपना फायदा सोच रहे हैं। भविष्य की स्पष्ट रूप-रेखा मुझे तो किसी के भी पास नहीं मिली है अबतक।

अपने पत्रकार मित्रों की बात करें तो उनमें बहुत थोड़े हैं जिन्हें इस मुहिम के मकसद से कुछ लेना-देना है। ज्यादातर तो दिन भर चलने वाले तमाशे की कवरेज कर रहे हैं। वे इसे कवर कर रहे हैं, क्योंकि उनका बॉस चाहता है। बॉस चाहता है क्योंकि इससे उसे कुछ दिनों के लिए एक तमाशा मिल रहा है और वो भी बिना मेहनत के। अखबारों के पहले पन्ने से लेकर न्यूज चैनलों के पैकेज और टॉक-शोज़ तक - "आज अन्ना के अनशन का दूसरा दिन है और आप देख रहे हैं कि मंच पर अन्ना लेटे हुए हैं, उनके साथ स्वामी अग्निवेश हैं, दिन में उमा भारती भी आईँ थीं, किरण बेदी और केजरीवाल साहब तो कल से ही यहां डटे हुए हैं।"


मुझे मालूम है कि ये चार दिनों का तमाशा है और उसके बाद सबके ओ.बी वैन चले जाएंगे, इक्का-दुक्का रिपोर्टर बच जाएंगे, ये खबर अखबारों के पहले पन्ने से उतर कर भीतर के पन्नों में कहीं गुम हो जाएगी। खुदा-ना-खास्ता, अगर अनशन 12-13 दिनों से ज्यादा चला तो ये सारा मीडियावर्ग लौट कर आ जाएगा और कहेगा कि "सरकार की बेरूखी की वजह से अन्ना मौत के कगार पर। 12 दिनों से अन्न का एक दाना नहीं लिया है अन्ना हजारे ने और पत्थरदिल सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंग रही" । लेकिन इस बीच में कोई नहीं झांकने आएगा, कोई स्टूडियो डिस्कशन इस पर नहीं होगा, कोई संपादकीय इस पर नहीं लिखा जाएगा।

लेकिन फिर भी मैं इस मुहिम का, इस आंदोलन का समर्थन करता हूं। मुझे आशा की एक किरण दिखी है, लोगों को उनकी जड़ता से निकालने का एक बेहतरीन मौका दिख रहा है।

सवाल ये है कि हम इस मौके का कैसे उपयोग करते हैं .. एक व्यापक जन-आंदोलन का रूप देकर या इसे बस एक विषय तक ही लिमिटेड रख कर। अपनी सारी नकारात्मकताओं के बावजूद मैं इसे एक नई और अच्छी शुरूआत मानता हूं, चाहता हूं कि ये शुरूआत एक व्यापक रूप ले और देश के कोने-कोने में फैल जाए। ये होता नहीं दिख रहा है, लेकिन मैं फिर भी उम्मीद लगाए बैठा हूं। ये आशावाद मैं आने वाले दिनों में भी बरकरार रखने की कोशिश करूंगा, हर दिन जंतर-मंतर जाऊंगा उस एक किरण की उम्मीद में, जिसकी आस मैं लगाए बैठा हूं।

और इसीलिए मैं इस मुहिम का समर्थन करता हूं, इसीलिए मैं कहता हूं कि हम सब लोगों को अन्ना हजारे के इस आंदोलन का समर्थन करना चाहिए। महापुरूषों के इस देश में सबसे ज्यादा अकाल इस वक्त महापुरूषों का ही है। हमारे महानायक इस वक्त अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर और एम एस धोनी जैसे लोग हैं, जिन्होंने शायद ही भूख, अकाल और गरीबी देखी होगी।

हम सब अपने-अपने महापुरूष के आने का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में, मैं मानता हूं कि अन्ना हजारे जैसा शख्स हमारे युग का महापुरूष है और अगर ये शख्स भी इस देश को, इस देश के लोगों को जड़ता, किंकर्त्वयविमूढ़ता की स्थिति से बाहर नहीं निकाल पाया तो पता नहीं फिर ऐसे दिन, ऐसे मौके फिर कब लौट कर आएंगे।

केवल कहने से नहीं होगा कि 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है', ऐसा हमें करके दिखाना होगा। तभी इस आंदोलन की सार्थकता साबित होगी और तभी ये आंदोलन जन-मानस को भी भागीदार बना पाएगा। अच्छी हिंदी और उसके उपमाओं का प्रयोग करते हुए पूछना चाहता हूं क्या यज्ञ की इस वेदी पर हम अपनी आहुति देने के लिए तैयार हैं ?

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

राम के बहाने रामकथा और भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ - कुछ प्रश्न

जनतंत्र में मुकेशजी ने रामनवमी के मौके पर राम के चरित्र की अपनी तरह से व्याख्या की। और विवाद तो उठना ही था क्योंकि एक अरब बीस करोड़ लोगों के देश में एक कहावत है कि अपनी अक्ल और दूसरे की जोरू सबको प्यारी लगती है। मुझे भी अपनी अक्ल प्यारी लगती है। लिहाजा मैंने भी अपनी प्रतिक्रिया लिख डाली। उसी का थोड़ा संशोधित संस्करण यहां डाल रहा हूं। एक अरसे के बाद ब्लॉग पर कुछ पोस्ट करना अच्छा लग रहा है।

" राम के बहाने रामकथा, भारतीय इतिहास का पुनर्पाठ - कुछ प्रश्न? "

पहले तो ये तय किया जाय कि राम थे या नहीं ... उनकी ऐतिहासिकता कितनी प्रमाणित की जा सकती है / कैसे प्रमाणित की जा सकती है .. लोकगाथा के अंग वे कैसे बने .. क्या कई सारे व्यक्तित्वों को मिला कर एक आदर्श तो नहीं गठित किया गया या श्रुति परंपरा के दिनों में कई बातें समय के साथ यूं ही तो नहीं जुड़ती गईं ?

इस तरह के न जाने कितने प्रश्न हो सकते हैं ... राम कथा इतिहास है, साहित्य है , दोनों का मिश्रण है या सदियों तक विकसित होते-होते आज के रूप में पहुंचा ... ये भी तय करना पड़ेगा कि किस राम को मानें - वाल्मीकि के राम को, तुलसी के राम को या हमारे समय की कुछ व्याख्याओं को - नरेंद्र कोहली के राम को, भगवान सिंह के अपने-अपने राम को ...।

राम के ऊपर इतना लिखा जा चुका है कि पहले ये तो तय करना पड़ेगा कि किसके राम, किस समय के राम ? जिस किसी के राम को मानें उसकी प्रामाणिकता को परखेंगे कैसे? राम के किस पाठ को मानें और उस पाठ की प्रामाणिकता कौन तय करेगा?

केवल अपने पुरखों से, समाज से सुन कर मैं उसे आंखें बंद करके मान लूं तो लानत मेरे सोचने-समझने की शक्ति पर है।

धर्म मेरे लिए निजी आस्था का विषय है, नरेंद्र कोहली ने अपना रामकथा में राम के व्यक्तित्व को जो रुप दिया है, जिस तरह से विकसित किया है ... उसके आधार पर मैं राम को मर्यादा पुरूषोत्तम या महानायक मानने के तैयार हूं। इसमें राम का मानवीय रूप बहुत अच्छे से विकसित होता है। इस किताब को मैंने पचासों बार पढ़ा है.. जब भी पढ़ता हूं राम से प्रेरित होता हूं .. जब भी किसी मुसीबत में होता हूं रामकथा का यही पाठ/यही विश्लेषण याद आता है, प्रेरित करता है मुसीबतों का सामना करने के लिए।

लेकिन न तो वाल्मीकि के राम को और न ही तुलसी के राम को मैं मानवीय, महानायक या मर्यादा पुरूषोत्तम मानने को तैयार हूं। दोनों ही किताबें इतिहास कम, साहित्य ज्यादा हैं।

कुछ मित्र कहते हैं कि राम का रूप मानवीय था और विष्णु के इस अवतार ने मानवीय रूप में काम किया, चमत्कारों का प्रदर्शन नहीं किया। मुझे तो ठीक इसके उल्टा दिखता है ... जरा वाल्मीकि रामायण या तुलसी का रामचरितमानस फिर से पढ़िए .. बचपन में राम कौशल्या को अपने मुंह में ब्रह्मांड का दर्शन कराते हैं ... अहिल्या को पैर से छूकर पत्थर से औरत बना देते हैं (जिसके चलते केवट पहले राम को पैर धोने को कहता है)... ये कहीं भी वर्णित नहीं है कि आखिर किस मानवीय शक्ति से राम ने सीता स्वयंवर में भगवान शिव का धनुष तोड़ने में सफलता पायी (इस धनुष को उस समय का सबसे शक्तिशाली आदमी रावण भी नहीं तोड़ पाया था) .. विज्ञान के तहत विकसित वो कौन सा बाण था कि मारीच को सिद्धाश्रम से दूर लंका के पास गिरा गया .. किस मानवीय शक्ति के तहत राम खर-दूषण की चौदह सहस्त्र सेना को अकेले ही खत्म कर देते हैं (लक्ष्मण ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था और इसके चलते ही सीता ने कर्तव्यच्युत होने का वो ताना दिया कि लक्ष्मण रेखा खींचने को विवश हो कर सोनमृग की तलाश कर रहे राम की सहायता के लिए जाने को लक्ष्मण विवश हुए) ... वो भी दृश्य याद करें जब समुद्र पार करने का रास्ता तलाश पाने में विफल होने पर राम अपने रौद्र रूप में आ कर अपने बाण से समुद्र को सुखा डालने और वरूण का नामो-निशान मिटाने का ऐलान करते हैं और फिर पत्थर पर रामनाम लिखने से वो समुद्र में नहीं डूबता है ...।

वाल्मीकि और तुलसी के राम तो हर कदम पर चमत्कार करते दिखते हैं और हम कहते हैं कि राम का रूप तो मानवीय था। वाह!!!

इस देश के इतिहास के पुनर्पाठ की अतिसख्त आवश्यकता है .. वेदों से लेकर आज तक के इतिहास की। ऐसा क्यों है कि महामानव, भगवान के अवतार, दुनिया भर के महापुरूष केवल इसी देश में पैदा हुए और हमारे पास उनका एक भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है ? वेदों को हम दुनिया की सबसे पुरानी किताब कहते हैं और उन वेदों में से किसी का भी उपयोग हम अपनी किसी पूजा में, किसी मंदिर में नहीं करते हैं। गीता और रामायण को कहीं ज्यादा लोग जानते हैं और पूजते हैं। क्यों भई?

मुद्राराक्षस की एक किताब है - धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ । इसे जरूर पढ़ना चाहिए, इतिहास की इस किताब की व्याख्या से आप पूरी तरह सहमत न हों ये मुमकिन है, लेकिन उनकी कई बातों को आप मानने के लिए तैयार होंगे। ... ऐसी कितनी कोशिशें इस देश में हुई हैं अपने इतिहास का मूल्यांकन करने के लिए?

राम जन्मभूमि आंदोलन आजाद भारत के तीन-चार सबसे बड़े आंदोलनों में था, बाबरी मस्जिद गिरा भी, सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पुरात्तत्ववेत्ताओं ने उस साइट की खुदाई भी की। कुछेक अवशेष जरूर मिले कि वहां मंदिर रहा होगा (हालांकि अभी भी ये संदिग्ध है), लेकिन ऐसे प्रमाण तो आज भी नहीं हैं जो बता सकें कि राम का जन्म उसी स्थान पर, उसी गर्भगृह में या उतनी ही दूरी पर कहीं हुआ।
राम तो राजकुमार थे, वाल्मीकि/तुलसी कहते हैं कि राम राजकुमार थे, अयोध्या के राजा दशरथ के बेटे थे और राजा लोग महलों में रहते थे। मतलब ये कि राम का जन्म तो महल में ही हुआ होगा (लव-कुश की तरह जंगल में नहीं)। तो फिर वो महल कहां गए ? अगर राम तीन-चार-पांच हजार साल पहले थे, तो उतने पुराने अवशेष आज की अयोध्या में तो होने ही चाहिए (आखिर आज की ही अयोध्या को हमने राम की भी अयोध्या माना है)। लेकिन आज तक ऐसा कोई भी पुरातात्विक अवशेष नहीं मिला। अयोध्या में जो भी मिला है वो पांच सौ से पंद्रह सौ साल पुराना है। मतलब ईसा के जन्म के बाद और हमारे धर्मग्रंथों की मानें तो राम तो ईसा से कई सौ या हजार साल पहले थे। मतलब क्या आज की अयोध्या सही है या हमारे धर्मग्रंथ किसी और अयोध्या की बात करते हैं। पहले इसे स्थापित कर लीजिए, ऐतिहासिक और पुरातात्विक सबूतों के आधार पर। फिर ये तय करिए कि बाबरी मस्जिद का वो विवादित ढ़ांचा जिसे हम राम का जन्मस्थान मानते हैं, वो सही है या गलत।
ब्रह्मा-विष्णु-महेश में आखिर महेश ही क्यों पहाड़ पर रहते हैं..विष्णु की तरह क्षीरसागर या ब्रह्मा के ब्रह्मलोक की तरह उनका कोई लोक क्यों नहीं है .. क्यों उन्हें स्वर्ग नसीब नहीं है .. शिव ही क्यों विष पीते हैं, ब्रह्मा-विष्णु क्यों नहीं (आखिर वो भी तो सृष्टि के तीन शीर्षस्थ पुरूषों में थे) .. ?
दरअसल ऐसी जानें कितनी बातें हमने जनश्रुति के आधार पर माना है और समय के साथ इनमें न जाने कितने बदलाव हुए। फिर हम आज क्यों इन्हें अक्षर सत्य मानना चाहते हैं?

ऐसे हजारों अनुत्तरित प्रश्न हैं .. इनकी चर्चा करना इस देश में मधुमक्खी के छत्ते पर ढेला मारने के समान है क्योंकि जहां इन्हें छेड़िये, बस लोग तैयार हो जाते हैं शब्दों के चाकू-तलवार-भाला-त्रिशूल लेकर।
अद्भुत सवाल खड़े किए जाते हैं -- मसलन क्या आप ईसा या पैगंबर मुहम्मद के बारे में भी यही या ऐसी बात कर सकते हैं .. वगैरह-वगैरह। अब इस बात का कैसे मैं जबाव दूं .. मैं अगर ये कहूं कि इस देश की बहुसंख्यक आबादी में मैं पैदा हुआ हूं, लिहाजा उसके इतिहास पुरूषों, उसकी संसकृति को ज्यादा आसानी से मैं समझ सकता हूं बनिस्बत दूसरे धर्मों या संस्कृतियों के। लेकिन लोग उम्मीद करते हैं कि सतही जानकारी के आधार पर टिप्पणी की जाय और हम में से अधिकांश ऐसा ही करते हैं। हम वैसे लोग हैं जो दूसरे धर्म के लोगों को पड़ोसी बनाने को तो तैयार नहीं होते, लेकिन उनके जीवन और संस्कृति पर अपनी सतही जानकारी के जरिए एक्सपर्ट कमेंट करने को तैयार रहते हैं।

सोमवार, 2 नवंबर 2009

आभार


अरसे बाद नीचे की कुछ पंक्तियां रविवार की सुबह अनायास मुंह से निकले, मैंने उन्हें नोट कर लिया ... और इस तरह काफी दिनों के बाद कुछ लिखा / जीवन फिर सार्थक लगा



जीवन में
क्या कभी हुआ है
आपके साथ

...कि
आप सो कर उठें
और
अजाने ही आभार
व्यक्त करने लगें
उन सबों का
जिन्होंने जीवन के हर मोड़ पर
आपका साथ दिया /
आपको प्रेरित किया /
जीवन के कठिनतम मोड़ पर भी
आपके संग चले

...कि
आप कृतज्ञ हो उठें
अनायास
उनके भी
जिनसे आपने
और जिन्होंने आपसे
बनाए रखीं दूरियां

...कि
आप कृत-कृत्य हो उठें
अपने होने में
दूसरों के योगदान का

...कि
आपकी अधखुली आंखों में
सुबह की रोशनी भरने से पहले
अनजाने में ही
शुक्रिया अदा करने के लिए
जुड़ जाएं
हाथ आपके

(जैसे छठ मैय्या को अर्घ्य देते हुए
जुड़ जाते हैं मां के हाथ)

.....

आज सुबह मेरे साथ
कुछ ऐसा ही हुआ

.....

दोपहर का ये चमकता सूर्य /
शाम का छाता धुंधलका /
रात में शहर की इन
चमचमाती रोशनियों के बाद भी

सुबह की गोधूलि वेला
की वो अनुभूति
अब भी बरकरार है /
आज जितना हल्का मन
पहले शायद कभी नहीं था

रविवार, 12 अप्रैल 2009

किसकी होगी अगली सरकार उर्फ आईए चुनाव-चुनाव खेलते हैं..



शायद इस सवाल का जबाव हम सब (एक अरब से ज्यादा भारतीय) जानना चाहते हैं .. कौन बनाएगा सरकार .. किसके हाथ आएगी दिल्ली की गद्दी ? इस का उत्तर जानने की जल्दी हमारे नेताओं के अलावा शायद हमारे मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों को) है। काश ! कि कोई अलादीन का चिराग होता, हम रगड़ते .. एक जिन्न निकलता .. हम पूछते और वो कहता अभी लो मेरे आका .. फिर हमारे सामने होते 2009 के आम चुनावों के नतीजे और सरकार के मुखिया का नाम ।

तो इस सवाल का जबाव जानने की कोशिश सभी कर रहे हैं और जाहिर तौर पर मैं भी उनसे अलग नहीं हूं। अपनी राजनीतिक समझ के अनुसार मैंने भी चुनावी नतीजों का एक अनुमानित परिदृश्य तय किया है .. चाहे तो इसे आप मेरी भविष्यवाणियां भी कह सकते हैं।

खैर पहले मेरे अनुमान और फिर अपना विश्लेषण आपके सामने रखूंगा :

चुनावी नतीजे - 2009

राजनीतिक दल

अनुमानित सीटें

भाजपा

130-135

कांग्रेस

120-130

बसपा

40-44

माकपा

28-31

अन्नाद्रमुक

20-22

तेलुगूदेशम

16-18

जनता दल (यूनाइटेड)

16-18

समाजवादी पार्टी

16-17

राष्ट्र्वादी कांग्रेस पार्टी

14-15

शिव सेना

13-14

बीजू जनता दल

11-12

राष्ट्रीय जनता दल

08-09

तेलंगाना राष्ट्र समिति

06-08

शिरोमणि अकाली दल

05-06

असम गण परिषद

05-06

प्रजा राज्यम्

06-09

भाकपा

05

द्रमुक

04-05

पीएमके

04-05

एमडीएमके

03-04

लोक जनशक्ति पार्टी

03-04

झारखंड मुक्ति मोर्चा

03-04

इंडियन नेशनल लोक दल

03-04

तृणमूल कांग्रेस

05-07

जनता दल (सेक्यूलर)

02-03

ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक

03

आरएसपी

03

नेशनल कॉन्फ्रेंस

03

राष्ट्रीय लोक दल

03-04

पीडीपी

01


ये एक विस्तृत विश्लेषण के आधार पर है। संक्षेप में ये कि इनका आधार राज्यवार है और मुझे लगता है कि राज्यों के अपने मुद्दे इस बार के चुनावों में भी सबसे बड़ी भूमिका निभाएंगे। मतलब ये कि जल-जोरू-जमीन या बिजली-सड़क-पानी .. जैसे भी आप समझना चाहें, समझ लें। आतंकवाद .. मंदी जैसे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का असर तो होगा लेकिन बहुत-थोड़ा। मतलब ये इन्द्रधनुषी नतीजे बहुत मजेदार गुल खिला सकते हैं।


भाजपा या कांग्रेस में से किसी को भी 135 से ज्यादा सीटें नहीं मिलने वाली हैं और इसका मतलब ये कि 16 मई से अगले पंद्रह दिनों तक कई तरह के राजनीतिक परिवर्तन होंगे। एक-दूसरे को गाली देने वाली पार्टियां गलबहियां डाले घूमेंगी और गलबहियां डाले घूम रही पार्टियां अखाड़े में एक-दूसरे के खिलाफ ताल ठोकतीं नजर आ सकती हैं।


मतलब ये कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार या पीएम इन वेटिंग (ये अच्छा व्यंग्य भाजपा ने अपने सर्वकालिक महान नेता के साथ किया है) लालकृष्ण आडवाणी का सपना सपना ही बना रह सकता है। प्रधानमंत्री की कुर्सी के साथ आडवाणीजी की धूप-छांह बरकरार ही रहने वाली है। लालूजी के शब्दों में कहें तो आडवाणीजी राज कैसे करिहें, जब उनके हाथ में राजयोग ही नहीं है


मेरा तो ये भी मानना है कि इन इन्द्रधनुषी नतीजों का अनुमान कांग्रेस ने भी लगा लिया है। और शायद इसी वजह से युवराज राहुल गांधी की ताजपोशी का ऐलान इस बार के चुनावों में नहीं किया गया। मतलब ये भी कि बिहार और उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला और इन-इन राज्यों में खोई जमीन फिर पाने के लिए संघर्ष का रास्ता इसीलिए अख्तियार किया गया।


अब चाहे इसे कांग्रेस पार्टी ने भांपा हो या फिर उसके युवराज ने, लेकिन मुझे लगता है कि इस बार के चुनावों से ही कांग्रेस ने अगले चुनावों (2011 या उसके बाद कभी भी) की तैयारी भी शुरू कर दी है। इस बार के अनुमानित खिचड़ी नतीजों के चलते ऐसा लगता है कि कांग्रेस के रणनीतिज्ञ ये मानते हैं कि इस बार की सरकार 2 साल से ज्यादा नहीं चलने वाली। ऐसे में अगर युवराज की ताजपोशी करनी है तो जमीन अभी से तैयार करनी होगी।


तो इस बार के अनुमानित खिचड़ी बहुमत के चलते 1996 की देवेगौड़ा सरकार जैसा प्रयोग दुहराया जाने वाला है। इस बार भी कोई ऐसा नाम सामने आ सकता है जिसकी हम उम्मीद नहीं कर रहे। और ये नाम किसी का भी हो सकता है .. शरद पवार, मायावती, नवीन पटनायक, नीतिश कुमार या कोई और ..। नाम का अनुमान लगाना तो लगभग असंभव है और शायद भारतीय राजनीति की यही खूबी है। 16 मई के बाद क्या होगा, इसके लिए अभी से खून क्यों जलाएं .. वो भी तब जब एक भी वोट नहीं डाले गए हों।


हां, कुछ अनुमान जरूर लगाए जा सकते हैं। मसलन ऐसी खिचड़ी नतीजों के बाद, भाजपा विरोध के नाम पर सभी गैर कांग्रेस पार्टियां एक जुट हो सकती हैं या भाजपा को समर्थन देने से इनकार कर सकती हैं। ऐसे में, शायद भाजपा का सरकार बनाने का सपना अधूरा ही रह जाय। या फिर भाजपा छोटी पार्टियों की सरकार को बाहर से समर्थन दे। या फिर 1996 में बनी बसपा-भाजपा की उत्तर प्रदेश का प्रयोग दुहराया जाय .. मतलब ये कि एक साल के लिए प्रधानमंत्री तुम्हारा हो, फिर एक साल के लिए प्रधानमंत्री हमारा हो टाइप।


हालांकि मुझे सबसे ज्यादा संभावना इस बात की लगती है कि जो सरकार बनेगी उसमें कांग्रेस और वामपंथी दल, दोनों बड़ी भूमिका निभाएंगे। भूमिका ही नहीं निभाएंगे बल्कि दोनों साथ भी आएंगे और सरकार में अपने लिए बड़े रोल के लिए सौदेबाजी भी करेंगे। मतलब ये कि भानुमति का कुनबा यानी तीसरा मोर्चा (कांग्रेस, भाजपा के अलावा बाकी के दल) कांग्रेस से सौदेबाजी करेगा। ऐसा हो सकता है कि तीसरा मोर्चा कांग्रेस से कहे कि यूपीए सरकार में हमने आपका प्रधानमंत्री देख लिया, अब हमारी बारी है। कांग्रेस से ये कहा जा सकता है कि हमारे प्रधानमंत्री को आप समर्थन दें और हमारी सरकार में आप भी शामिल हों जाय .. या चाहें तो बाहर से ही समर्थन दें पर प्रधानमंत्री हमारा ही होगा। सबसे ज्यादा संभावना इस बात की है कि कांग्रेस सरकार में शामिल होगी और कुछ बड़े मंत्रालयों के लिए सौदेबाजी करेगी (गठबंधन के सबसे बड़े दल के नाते)। 


इतना ही नहीं, वामपंथी दल भी 1996 की ऐतिहासिक भूल नहीं दुहराएंगे और सरकार में शामिल हो जाएंगे। जाहिर तौर पर इनमें मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी होंगे। ऐसा मुमकिन होगा .. माकपा महासचिव प्रकाश करात साहब के धुरजोर विरोध के बावजूद ऐसा होगा। मेरा अनुमान ये है कि केरल में वामपंथियों को करारी शिकस्त मिलने वाली है और उनकी ज्यादातर सीटें पश्चिम बंगाल से ही आने वाली हैं। ऐसे में माकपा की बंगाल लॉबी करात के विरोध पर भारी पड़ सकती है। ये भी हो सकता है कि बुद्धदेव भट्टाचार्य को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर आम सहमति बन जाय और दो अलग-अलग ध्रुवों पर खड़े कांग्रेस और वामदल साथ-साथ आ जाएं।


मुझे तो ये भी लगता है कि प्रधानमंत्री बनने की हर संभव कोशिशों के बावजूद मायावती की दूरी इस गद्दी से अभी बरकरार रहेगी। 40-44 सीटों के बावजूद ऐसा हो सकता है क्योंकि मायावती ब्रांड की राजनीति को इतनी जल्दी अगर प्रधानमंत्रित्व दे दिया गया तो कई दलों की दुकानदारी बंद हो सकती है या ज्यादा सभ्य शब्दों में कहें तो उनके अस्तित्व पर संकट आ सकता है।


शरद पवार जैसे नेताओं के लिए तो ये चुनाव जीवन-मरण की तरह हैं और अभी नहीं तो कभी नहीं वाली बात है। उम्र उनके खिलाफ है और शायद ये उनके लिए आखिरी मौका है। तो इस देश की सबसे बड़ी गद्दी पाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं (या फिर हार मान लें और जितना मिल रहा है, उतने पर ही संतोष कर लें)। हालांकि इनके नाम पर आमसहमति बनने के आसार कम ही दिखते हैं।


लालूजी-पासवानजी जैसे नेता अपनी-अपनी करते रहेंगे और केंद्र में बनने वाली सरकार में मंत्री बने रहेंगे। हां, उनकी सौदेबाजी की ताकत यूपीए सरकार के दिनों वाली नहीं रहेगी।


तो मुलायम सिंह यादव कहां होंगे? ये लाख टके का सवाल है क्योंकि नई सरकार में मायावती की बड़ी भूमिका हो सकती है। ऐसे में मुलायम का रोल केंद्र में बनने वाली सरकार में क्या होगा, ये कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन ये भी बात है कि संयुक्त मोर्चा सरकार के बाद से मुलायम केंद्र की सरकार से बाहर हैं .. और इस बार तो उत्तर प्रदेश से भी बाहर हैं। ऐसे में केंद्र में एक सार्थक भूमिका की तलाश मुलायम को है और इसीलिए उनकी भूमिका का अनुमान लगाना बहुत मुश्किल है।


नीतिश जैसे नेता तो शायद अभी अपनी बारी आने का इंतजार करेंगे और इतनी जल्दी अपने पत्ते खोलने से परहेज करेंगे। मुझे काफी समय से ये लगता रहा है कि नीतिश बिना धीरज खोये लंबे संघर्ष की तैयारी कर रहे होते हैं, वो भी बिना किसी शोर-गुल के। तो प्रधानमंत्रित्व के लिए अपना दावा भी वो समय आने पर ही करेंगे .. शायद 2011 या उसके बाद होने वाले चुनावों के दौरान।


मुझे तो नवीन पटनायक भी लंबी रेस के घोड़े लगते हैं। भाजपा का दामन छोड़ने के बावजूद भी वो अपने पत्ते इतनी जल्दी नहीं खोलेंगे और उचित समय का इंतजार करेंगे। तब तक के लिए केंद्र में कुछ मंत्रालयों की गद्दी से उन्हें ऐतराज नहीं दिखता।


लेकिन जैसा मैं लगातार कह रहा हूं कि ये सब राजनीतिक गणित है और इनका अनुमान लगाना, बेवजह अपना खून जलाने जैसा है। तो हम सबों को 16 मई और उसके बाद पंद्रह दिनों तक चलने वाले तमाशे का इंतजार करना चाहिए। उस समय के राजनीतिक दोस्त-दुश्मन-समीकरण बड़े चौंकाने वाले हो सकते हैं।


एक आखिरी बात और .. मैं ना तो राजनीतिज्ञ हूं, ना ही कोई चुनाव विश्लेषक और मेरे अनुमान सौ फीसदी गलत भी हो सकते हैं। शायद मुझे इस बात से ज्यादा खुशी होगी, अगर कोई ऐसी सरकार बने जो पांच साल चले (मतलब ये कि उसके केंद्र में भाजपा या कांग्रेस हो)। मंदी के इस दौर में देश में राजनीतिक स्थिरता की जरूरत है, ताकि प्रगति के पथ पर उठे हमारे कदम आगे बढ़ते रहें।


लेकिन आम भारतीय जनमानस को हल्के में हमें नहीं लेना चाहिए। जो भी दल ऐसा करता है, करेगा .. उसका 'भारत अस्त' हो जाएगा। आखिरकार इसी जनता ने इंदिरा गांधी जैसी सर्वशक्तिमान और शायद आजाद भारत की अब तक की सबसे ताकतवर नेता को भी धूल चटा दी थी। इसलिए जय उसकी होगी/होनी चाहिए जो जनता के बीच जाएगा .. जनता के लिए काम करता दिखेगा .. जल-जोरू-जमीन के लिए संघर्ष करेगा, चाहे उसका राजनीतिक आधार या पार्टी जो भी हो। तो 16 मई तक इंतजार कीजिए, एक सरप्राइज पैकेज आने वाला है।

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

सीताराम येचुरी .. हमारे नए वित्त मंत्री ?


मैं मजाक नहीं कर रहा हूं .. चुनावी गतिविधियों को देखने के बाद मुझे तो ऐसा ही लगता है कि सीताराम येचुरी हमारे नए वित्त मंत्री बन सकते हैं।

क्यों ? इसलिए क्योंकि हमने मुख्यधारा की लगभग सभी पार्टियों को सरकार में देख लिया है, प्रधानमंत्री या दूसरे मंत्रियों के रूप में देख लिया है। एक बस वाम दल ही केंद्रीय सरकार में नहीं आए (1996 की संयुक्त मोर्चा सरकार को छोड़ कर, जिसमें कॉमरेड इंद्रजीत गु्प्त और चतुरानन मिश्र मंत्री बने थे थोड़े समय के लिए)।

इसलिए भी कि येचुरी साहब के बड़े जबरदस्त ख्यालात हैं .. अर्थव्यवस्था के बारे में, मंदी से निपटने के बारे में .. ।
जरा उनके चुनावी घोषणापत्र पर नजर डालिए .. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी अपने घोषणापत्र के पृष्ठ 10 पर कहती है कि अगर भारतीय वित्तीय संस्थान मंदी के इस दौर में भी सुरक्षित बचे हैं तो इसका श्रेय उन्हें जाता है। उन्हें इसलिए क्योंकि उन्होंने वर्तमान यूपीए सरकार को वित्तीय संस्थानों में फेरबदल करने से रोका, उन्हें स्वायत्तता देने, उन्हें निजीकरण से बचाया .. वगैरह..वगैरह..।

माकपा के घोषणापत्र का सबसे मजेदार हिस्सा है घरेलू वित्तीय संस्थानों पर नकेल कसने के संबंध में (पृष्ट 15/माकपा घोषणापत्र)। इसके बारे में मेरे एक मित्र का कहना है कि अगर इन सुझावों को मान लिया जाय तो 1991 से चल रही नई आर्थिक नीति को हम सिर के बल खड़ा कर देंगे।
माकपा के घोषणापत्र का एक और मजेदार हिस्सा है जहां वो घरेलू धनकुबेरों पर नए टैक्स लगाने की बात करते हैं। इस संबंध में मैंने कुछ दिनों पहले येचुरी साहब को एक टीवी चैनल पर अपना पक्ष बयान करते सुना .. क्या ईमानदारी थी और कितने प्रतिबद्ध वो लग रहे थे ..। ईमानदारी से कहूं तो इस कार्यक्रम को देखने के दौरान ही ये बात मेरे दिमाग में कौंधी कि येचुरी साहब हमारे नए वित्त मंत्री बन सकते हैं।
ये भी सवाल मन में गूंजा कि भारत कैसा लगेगा जब भारत के वित्त मंत्री सीताराम येचुरी जैसे एक वामपंथी नेता होंगे? जरा इस सवाल के जबाव को टटोल कर देखिए ..।
ऐसे क्यों सीताराम येचुरी हमारे नए वित्त मंत्री बन सकते हैं .. इसके पक्ष में मेरे पास एक और कारण है ..।
चुनावों में दिलचस्पी मेरी भी है और चुनावी विश्लेषकों की इस भीड़ से मैं भी अलग नहीं हूं। मैंने भी चुनावों के नतीजे का एक खाका तय किया है, मेरी अपनी भविष्यवाणियां हैं और उनके आधार पर मैं ये कहना चाहता हूं कि हमारे अगले प्रधानमंत्री भाजपा या कांग्रेस से नहीं होंगे .. वे किसी तीसरे ही दल के नेता/नेत्री होंगे और आने वाली सरकार भी एक खिचड़ी सरकार होगी, गठबंधन सरकार होगी। ये हो सकता है कि इस सरकार को भाजपा बाहर से समर्थन दे या फिर कांग्रेस समर्थन भी दे और सरकार का हिस्सा भी बन जाए। लेकिन इन दोनों पार्टियों की सरकार तो नहीं ही बनने जा रही है। हालांकि इन भविष्यवाणियों के बारे में विस्तार से मैं अगली बार लिखूंगा .. उस बार मैं अपना राज्यवार आंकड़ा दूंगा और नतीजे आने तक इन पर कुछ-न-कुछ लिखता रहूंगा।
खैर, तो विषय पर लौटते हुए .. मेरा मानना है कि अगले सरकार के गठन में भी वाम दलों की बड़ी भूमिका होगी। यहां मैं एक और भविष्यवाणी करना चाहता हूं कि इस बार बनने वाली सरकार में वामदल भी शामिल होंगे, माकपा सहित। जी हां, इस बार वे 1996 की ऐतिहासिक भूल को नहीं दुहराएंगे, जब ज्योति बसु को तीसरे मोर्च ने अपना नेता चुना था, ज्योति दा प्रधानमंत्री बनना भी चाहते थे लेकिन पार्टी (माकपा) ने इसकी मंजूरी नहीं दी थी।
मुझे तो साफ लगता है कि माकपा सहित बाकी वामपंथी पार्टियां इस गलती को फिर से नहीं दुहराएंगी, चाहे जो भी हो जाए। और प्रकाश करात साहब के धुरजोर विरोध के बावजूद ऐसा होगा, ये भी मैं मानता हूं। ऐसा मैं ही नहीं, कई वाम नेता भी मानते हैं। इन नेताओं का ये भी मानना है कि यूपीए सरकार में शामिल नहीं होने का फैसला भी एक ऐतिहासिक भूल थी। मेरी जानकारी के मुताबिक इस मसले पर माकपा सहित सभी वाम दलों में खासा मतभेद है।
इसलिए अगली सरकार के गठन में हर पार्टी, हर दल अपने लिए सोने की लंका तलाशेगी और जाहिर तौर पर वाम दल भी इसके अपवाद नहीं होंगे। मेरी जानकारी के मुताबिक नई सरकार में शामिल होने के लिए वे वित्त मंत्रालय, शिपिंग, रेलवे और ग्रामीण विकास जैसे मंत्रालयों की मांग कर सकते हैं। आपकी जानकारी के लिए कि ये वे मंत्रालय जिन्होंने पिछले पांच सालों में माकपा के पश्चिम बंगाल सरकार के लिए सबसे ज्यादा अड़चनें पैदा की।
यहां मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहता हूं कि मैं कभी भी वामदलों का समर्थक नहीं रहा हूं। हां, वाममार्गी जरूर हूं लेकिन विद्यार्थी जीवन में मैंने हमेशा वाम दलों की राजनीति का विरोध ही किया है और आज भी उनकी राजनीति का विरोधी हूं। इतना जरूर है कि वामपंथ की कई बातें मुझे लगती हैं कि जीवन में उतारने की जरूरत है या उनके लागू किए जाने से आम आदमी का खासा भला हो सकता है।
तो खैर, विषय पर लौटते हुए .. मुझे लगता है कि पं. बंगाल में वाम दलों को अच्छी-खासी सीटें इस बार भी मिल जाएंगी (पिछली बार से थोड़ी कम) लेकिन केरल में उनका सफाया हो सकता है। मेरे ख्याल से ममता बैनर्जी को इन चुनावों में ठीक-ठाक तवज्जो मिल जाएगी और तृणमूल-कांग्रेस गठबंधन को इस बार पं. बंगाल में 12-13 सीटें मिल सकती हैं। ये बहुत आशावादी दृष्टिकोण है मेरा मतलब ये कि इससे ज्यादा तो नहीं ही मिलेगी। इस मामले में अंग्रेजी के बड़े अखबारों या न्यूज चैनलों से मैं भिन्न दृष्टिकोण रखता हूं। मेरा मतलब ये है कि अंग्रेजी के अखबार बार-बार पं. बंगाल में बदले हुए मौसम की बात कर रहे हैं लेकिन ये वोट में परिवर्तित हो पाएगा, इस पर मुझे शंका है।
मेरी स्पष्ट राय है कि लाख प्रयत्नों के बावजूद ममता दी वाम दलों के बंगाल किले को बहुत हिला नहीं पाएंगी और अकेले माकपा को 20 से ज्यादा सीटें इन चुनावों में बंगाल से मिल सकती हैं।
इन नतीजों के चलते नई सरकार के गठन के दौरान पं. बंगाल अपना हिस्सा मांगेगा और प्रकाश करात अगर अपनी जिद पर अड़े रहे तो महासचिव होने के बावजूद वो पार्टी में अकेले पड़ सकते हैं। मतलब ये कि सरकार के गठन में माकपा के रोल का बड़ा हिस्सा पं. बंगाल के मार्क्सवादी तय करेंगे और केरल में चूंकि उनका सफाया हो चुका होगा, इसलिए केरल लॉबी के समर्थन के बावजूद करात साहब की ज्यादा चलेगी नहीं।
ऐसे में मुझे लगता है कि माकपा की ओर से मंत्री बनने के लिए जो दो सबसे योग्य उम्मीदवार हैं - उनमें सीताराम येचुरी वित्त मंत्री के रूप में और मो. सलीम किसी और मंत्रालय में। चार से ज्यादा माकपा को कोटा नहीं मिलने वाला। लिहाजा बाकी दो नामों पर आप भी जूझिए/भविष्यवाणी कीजिए और मैं भी अपनी किस्मत कुछ दिनों बाद आजमाऊंगा।